
आप अच्छे भले नाटककारी और थिएटर से जुड़े हुए थे। फिल्मों में आने की क्या वजह रही?
देखिए, फिल्मों की ओर तो नाटक वालों ने ही आना होता है। मैं यह मानकर चलता हूं कि सिनेमा थिएटर की ही एक्सटेंशन है। इसे मैं टैक्नीकल थिएटर कहता हूं। यानी कैमरे के थ्रू थिएटर। इसलिए सिनेमा में आने का पहला हक तो थिएटर वालों का ही है।
थिएटर में पैसा और फेम नहीं मिलता। आप फिल्मों की तरफ आर्थिक वजह से आए या आपके मन में कुछ और था?
यह बिल्कुल सही है कि थिएटर में पैसा नहीं है। थिएटर करके आप अपनी रोज़ी-रोटी भी नहीं चला सकते। हिंदुस्तान का ज़्यादातर थिएटर सरकारी ग्रांटों पर चलता है। यह ग्रांटें लेने का रास्ता भी बड़ा टेढ़ा है। मैं शौक से पिछले तीस साल से थिएटर कर रहा हूं, लेकिन मुझे ग्रांट लेनी नहीं आई। दर्शकों का भी पूरा सहयोग नहीं मिलता। मेरा थिएटर मैसेजफुल थिएटर रहा है, लेकिन मैंने इसमें मनोरंजन का भी पूरा ध्यान रखा है। फिल्में चूंकि लोग मनोरंजन के लिए देखने के लिए आते हैं। इसलिए मनोरंजन के साथ-साथ फिल्मों में मैं मैसेज देने के लिए भी आया हूं ।
फिल्म बनाते समय आप किन बातों का ध्यान रखते हैं?
पहली फिल्म से सीख लेते हुए मैं चाहूंगा कि मेरी फिल्म में एंटरटेनमेंट थोड़ी ज्यादा हो। लेकिन इसके लिए मेकिंग या स्टैंडर्ड के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे। यह कोशिश जरूर रहेगी कि इसमें एंटरटेनमेंट ज्यादा दे पाएं। फिल्म एक एंटरटेनमेंट मीडिया है। इसमें दर्शक स्टार कास्ट पर भी ध्यान देता है। इसलिए चाहूंगा कि इस ओर भी ध्यान दूं। यह भी चाहूंगा कि बड़े मेक्र्स को अपने साथ जोड़ूं।
यानी आप मानते हैं कि फिल्म चलाने के लिए बड़े स्टार और मेक्र्स ही काफी हैं। स्टोरी का इसमें कोई रोल नहीं?
नहीं मेरा ऐसा मतलब नहीं है। असल में प्राइमरी स्तर पर दर्शकों को एट्रैक्ट करने के लिए अच्छी स्टार कास्ट और अच्छे मेक्र्स ज़रूरी हैं। उसके बाद फिल्म अपने दम पर ही चलेगी। एक अच्छी स्क्रिप्ट का होना अच्छी फिल्म के लिए पहली डिमांड है। एक लेखक होने के नाते तो मैं यह मानता हूं कि अच्छी स्क्रिप्ट बिना बड़ी स्टार कास्ट के भी फिल्म को चला सकती है। ऐसा बहुत बार हुआ भी है। हमारे साथ दिक्कत यह आई कि हम सभी नए थे। हमारी स्टार कास्ट भी नई थी।
पॉलीवुड में ज्यादातर फिल्मों में कॉमेडी के नाम पर वल्गैरिटी परोसी जा रही है? ऐसी फिल्में चल भी जाती हैं। क्या दर्शक ऐसी फिल्में चाहते हैं? क्या कहना चाहेंगे?
दर्शकों का इसमें कोई कसूर नहीं है। वो तो वही देखेंगे, जो आप उन्हें परोस देंगे। असल में बात यह है कि पंजाबी इंडस्ट्री में अच्छे मेक्र्स नहीं है। दूसरी बात पॉलीवुड में अच्छे राइटरों की बहुत कमी है। आज फेसबुक पर देखें हर दूसरा आदमी फिल्म लिखने की बात कर रहा है। जिन लोगों को स्पॉड बॉय भी ना रखा जा सके, ऐसे लोग इस फील्ड में लिखने की घोषणा करते हैं। आप खुद सोच सकते हैं ऐसी स्थिति में क्या हो सकता है। यानी राइटर को समझा ही कुछ नहीं जा रहा। असल में यह जिम्मेदारी वाला काम है। इसे गंभीरता से लेना चाहिए। हमें प्रोफैशनल राइटरों की ज़रूरत है। तभी अच्छा सिनेमा खड़ा हो सकता है।
थिएटर और फिल्म दोनों में आपको क्या फर्क लगा?
इसमें सिर्फ मीडियम का अंतर है। आपको बस अपनी बात कहनी आनी चाहिए, मीडियम चाहे कोई भी हो। बाकी सिनेमा में पॉसीबिलिटिस ज्यादा हैं। यह ज्यादा टैक्नीकल है। सिनेमा में काम भी टैंशन में होता है। क्योंकि दर्शकों का रिएक्शन बाद में मिलना होता है। थिएटर लाइव माध्यम है। इसे करने में अलग मज़ा है।
क्या पंजाबी सिनेमा ग्रो कर रह है?
देखिए, पिछला कुछ समय तो पंजाबी सिनेमा के लिए अच्छा रहा। लेकिन अब लगता है इसमें ठहराव आ गया है। लेकिन एक अच्छी बात अब यह होगी कि अब अच्छे मेक्र्स ही सामने आएंगे और पंजाबी सिनेमा में अच्छी फिल्में बननी शुरू होंगी। क्योंकि सारी फिल्में लगभग एक जैसी होनी शुरू हो गई थीं। यहां तक कि घटिया किस्म की कॉमेडी आनी शुरू हो गई थी। मगर देख रहा हूं, इस साल अच्छी फिल्में रिलीज़ होंगी। तभी मेरे जैसे लोगों की डिमांड बढ़ेगी।
क्या फिल्म बनाते समय डायरेक्टर पर प्रोड्यूसर का दबाव रहता है या वह अपने मुताबिक काम करने के लिए स्वतंत्र है?
मुझे लगता है यह डायरेक्टर की परस्नैलिटी पर डिपेंड करता है। अगर डायरेक्टर प्रोड्यूसर का पिछलग्गू है, तो प्रोड्यूसर अपनी चलाएगा ही। अगर डायरेक्टर पावरफुल है, तो प्रोड्यूसर काम में दखल नहीं देता। मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। हां इतना ज़रूर है कि प्रोड्यूसर पैसा लगाता है, तो फिल्म ऐसी होनी चाहिए कि कम से कम प्रोड्यूसर को फायदा ना हो, तो घाटा भी नहीं होना चाहिए।
पॉलीवुड में ट्रैंड है कि सिंग्र्स ही बतौर हीरो लिया जाए। क्या आप अब अपनी फिल्मों में एक्टर लेंगे या किसी गायक को?
असल बात यह है कि हमारे पास थिएटर से हीरो नहीं आ रहे। कैरेक्टर एक्टर तो थिएटर से आ रहे हैं, लेकिन हीरो नहीं। सिनेमा को हीरो चाहिए, जिसके नाम पर फिल्म बेची जा सके। इस मजबूरी के कारण ही फैन फॉलोवर को देखते हुए सिंग्र्स को बतौर हीरो ले लिया जाता है। प्रोड्यूसर भी यही सोचता है। सिंग्र्स को बतौर हीरो लेना फिलहाल पॉलीवुड की मजबूरी है।
साउथ इंडियन सिनेमा की बात करें, तो वहां पर नए एक्टर्स की फिल्में भी चल जाती हैं। यहां ऐसा क्यों नहीं है?
देखिए, वहां फिल्म मेक्र्स पावरफुल हैं। यहां जो डायरेक्टर भी आ रहे हैं, वो भी या तो प्रोड्यूसर और या हीरो के पिछलग्गू हैं। वह इतने पावरफुल नहीं कि उनके नाम पर फिल्म बिक सके। मैंने देखा है कि यहां जिसे कैमरा चलना आ जाए वो भी अगली बार फिल्म डायरेक्ट करने का जुगाड़ लगाने लगता है। ना वो एक्टिंग के बारे में कुछ जानते हैं और ना ही सिनेमा के बारे में। अगर ऐसे लोग इंडस्ट्री में आते रहेंगे, तो पॉलीवुड की क्या हालत होगी। असल में जुगाड़ को छोड़कर इस फील्ड में पूरी मेहनत और गंभीरता से आना होगा। तभी सिनेमा ग्रो करेगा। सिर्फ ग्लैमर और पैसा देखकर ही नहीं।